श्रमदान और कर्मदान की तुम ही जीवित मूरत हो। श्रमदान और कर्मदान की तुम ही जीवित मूरत हो।
मुझ अविश्वासी का अब कुछ और कहना जरूरी नहीं है न ! मुझ अविश्वासी का अब कुछ और कहना जरूरी नहीं है न !
मैं समृद्ध विरासत का विश्वासी हूँ। हाँ मैं रग-रग में बहनेवाली गंगा नगरी काशी हूँ।। मैं समृद्ध विरासत का विश्वासी हूँ। हाँ मैं रग-रग में बहनेवाली गंगा नगरी काशी ...
कठिन कर्म से, दुविधा की बेड़ियां करती है। कठिन कर्म से, दुविधा की बेड़ियां करती है।
गहराती जा रही है रात, बात कर लें। शिकवे जो रहे गुस्ताख, राख कर लें। गहराती जा रही है रात, बात कर लें। शिकवे जो रहे गुस्ताख, राख कर लें।
इस कविता में मैंने वर्षा ऋतु का स्वागत अलग अलग लोगों द्वारा कैसे किया जाता है और अपने अंतरमन के विचा... इस कविता में मैंने वर्षा ऋतु का स्वागत अलग अलग लोगों द्वारा कैसे किया जाता है और...